एक सिद्ध योगी के अनंत ज्ञान का रहस्य।
एक सिद्ध योगी के अनंत ज्ञान का रहस्य--
इंसान के बोध की क्षमता केवल शब्दों को समझने की क्षमता से कहीं अधिक परे है, लेकिन चूंकि आपके मन को ट्रेनिंग मिली है कि कही हुयी चीजों को न केवल सुनने की बल्कि याद करने की और उसे लिख लेने की। आपको जो बात काम की लगती है, उसे लिखना जरुरी है, लेकिन मनुष्य बुद्धि का बोध इससे कहीं परे है। इस बोध को बढ़ाना जरुरी है क्योंकि आप उसी को जानते हैं जो आपके बोध में होता है, बाकी सब कहानी और कल्पना है।
जो आपके बोध में है और आपने जिसे अनुभव किया है आप केवल उसी को जानते हैं, बाकी सब खोखली कल्पना मात्र है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई कहानी कितनी शानदार है, लेकिन चूंकि यह केवल एक कहानी है जो आपके जीवन में कोई बदलाव नहीं लायेगी। अगर इसे आपके जीवन में बदलाव लाना है, तो इसमें अनुभव का एक आयाम होना नितांत आवश्यक है। वो तभी होगा जब आपके पास ऐसा बोध होगा।
हम स्वामी विवेकानन्द जी का उदाहरण लेते हैं---
स्वामी विवेकानन्द पहले योगी थे जो 1893ई. में अमेरिका आये थे। वे यूरोप भी गये और अमेरिका से वापस लौटते समय वो एक जर्मन फिलोस्फर के घर मेहमान थे। डिनर के बाद वे दोनों स्टडी रुम में बैठकर आपस में चर्चा करने लगे। वहाँ मेज पर 700 पेज की एक मोटी सी किताब रखी थी और वह जर्मन व्यक्ति उस किताब की बहुत बड़ाई कर रहा था।
विवेकानन्द जी ने कहा, क्या आप मुझे एक घण्टे के लिये ये किताब दे सकते हैं, मैं देखना चाहता हूँ कि इस किताब में क्या है। वो जर्मन व्यक्ति हसने लगा और कहा- आप केवल एक घण्टे में इस किताब को पढ़ेंगे, मैं इसे कई हफ्तों से पढ़ रहा हूँ लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा क्योंकि यह इतनी जटिल है और वैसे भी यह किताब जर्मन भाषा में है, और आपको तो जर्मन भाषा आती भी नहीं, एक घंटे में आप क्या करने वाले हैं।
विवेकानन्द जी ने कहा, आप किताब दीजिये मैं बताता हूँ। उन्हें वह किताब दे दी गई। उन्होंने किताब को अपने दोनों हाथों के बीच पकड़ा और आँखे बन्द करके बैठ गये। एक घण्टे बाद किताब वापस करते हुये उन्होंने कहा, इसमें कुछ भी खास नहीं है। उस जर्मन व्यक्ति ने सोचा कि ये तो घमण्ड की हद हो गयी, इन्होंने किताब को खोला तक नहीं, इन्हें ये भाषा तक नहीं आती और ये ऐसी बात कर रहे हैं। वह व्यक्ति थोड़ा नाराज सा हो गया कि ये कैसी बकवास है।
विवेकानन्द जी ने कहा आप किताब के बारे में कुछ भी पूछ लीजिये मैं आपको बता दूँगा। वह व्यक्ति बोला ठीक है तो बताइये पेज नं.633 में क्या लिखा है। विवेकानन्द जी ने एक-एक शब्द दोहरा दिया। उन्होंने कहा- आप बस पन्ने का नम्बर बोलिये और वे उस पन्ने की बातों को शब्दशः बता देंगे। फिर उस व्यक्ति ने पूछा कि ऐसा कैसे हो सकता है, आपने किताब खोली तक नहीं, फिर आपको सबकुछ कैसे पता है, उन्होंने कहा- इसलिये लोग मुझे विवेकानन्द कहते हैं। विवेक यानी बोध, उनका वास्तविक नाम नरेंद्र था, उनके गुरु परमहंस जी उन्हें विवेकानन्द कहते थे, क्योंकि उनके बोध की क्षमता ही ऐसी थी।
तो जीवन के बोध को आप अपने लाजिकल माइंड में प्रासेस नहीं कर सकते, क्योंकि तर्क जीवन की बहुत सारी चीजों को नकार देता है, जिनके बिना आप जी नहीं सकते।
धन्यवाद...।
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