क्या कुंडलिनी जागरण नास्तिकता का प्रतीक है।

क्या कुंडली जागरण नास्तिकता का प्रतीक है-

कुंडलिनी शक्ति को परमात्मा ने मनुष्य के सवसे नीचे के मूलाधार चक्र में प्रदान किया है, जोकि काम-वासना, मानसिक रूप से स्थायित्व, भावनाएं व इंद्रिय सुख से संबंधित है।
जब मनुष्य ध्यान द्वारा कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करने का प्रयास करता है तो सर्वप्रथम मूलाधार चक्र जाग्रत होता है। इस स्थिति में यह खतरा बना होता है कि मनुष्य कामी हो जाए और इन्द्रिय सुख प्राप्ति में ही अपना जीवन व्यतीत कर दे।

इसीलिए कुझ विद्वान यह मानते हैं कि कुंडलिनी शक्ति को साधने वाले व्यक्ति आस्तिक और सात्विक नहीं रह जाता, वह परमात्मा की बराबरी करने लगता है व केवल अपने एक चक्र मूलाधार के जागरण से ही मिली शक्तियों का दुरुपयोग करके नास्तिक बन जाता है। यह बात एक हद तक सत्य है। इसीलिये ही तो परमात्मा ने इस शक्ति को सबसे निचले मूलाधार चक्र में स्थापित किया है ताकि यदि कोई मनुष्य कुंडलिनी जगरण की यात्रा शुरु करता है तो पहले उसका यह चक्र जो सभी तरह के विकारो से संबंधित है, इसका जागरण पहले हो ताकि आगे बढने से पहले ही जो कमजोर साधक हैं वो अपने मार्ग से भ्रष्ट हो जायें।

कुंडलिनी शक्ति साधक की कठोर परीक्षा लेती है जो मनुष्य के जीवन में आने वाले विकारों से संबंधित होती हैं। माया, मोह, मद, लोभ, मात्सर्य, काम, असत्य और अहंकार जैसे भीषण विकारों को धारण करने वाला साधक कभी भी कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सफल नहीं हो सकता।
जो साधक मूलाधार चक्र से जुडे इन विकारों को झेल लेते हैं और इस शक्ति द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं में सफल हो जाते हैं उनमें यह शक्ति मूलाधार में ना रुककर ऊपर के चक्रों की यात्रा पर निकल पडती है और सातवें  चक्र सहस्त्रार से निकलकर ब्रह्मंड में व्याप्त हो जाती है। किन्तु ऐसे साधक विरले ही होते हैं जो कुंडलिनी शक्ति का पूर्ण जागरण कर अग्नि तत्व के समान ईश्वर के लिये अपना जीवन संसार को समर्पित कर सदा-सदा के लिये अमर हो जाते हैं।

असल में ये ही महामानव हैं जो ईश्वर के समान सामर्थय रखते हैें किन्तु अपने सामर्थ्य को ईश्वर के चरणों में रखकर अपनी सारी उपलब्धयों का श्रेय ईश्वर को देकर निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करते हैं और म्रत्यु के पश्चात परमात्मा में विलीन होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
धन्यवाद...

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